पहली सैलरी पालकोट टीम के शुभांकन द्वारा रचित एक भाव युक्त लेख है जिसमें लेखक ने प्रदान संस्था में कार्य करते हुए गाँव के एक घर में अपने विलेज़ स्टे के दिनों का स्मरण किया है। यह लेख शहर से आए हुए एक युवक, गाँव के ग्रामीणों के साथ उसका जुड़ाव और उन ग्रामीणों की मासूमियत का एक सुंदर चित्रण है। प्रस्तुत विवरण के माध्यम से लेखक ने गाँव में व्यतीत किऐ सुख-दुःख के क्षणों एवं उसकी ख़ुशी के लिए समर्पित ग्रामीणों के प्रयासों को अपनी प्रदान की पहली कमाई के चश्मे से दर्शाने का प्रयत्न किया है।
ज्यों ही मैंने अपने बायें हाथ में थामे हुए झोले का सफेद फीता कसते हुए निगाहें दरी से ऊपर की ओर उठाई, तब प्रदान दफ़्तर की घड़ी 5 बजकर 25 मिनट बजा रही थी। मेरी अपनी कलाई घड़ी में 5 बज रहे थे। शायद ‘विलेज स्टे’ का नाम सुनकर वह भी मेरी तरह सुस्त पड़ गई थी। मेरे ऑफिस के ‘कलीग’ मुझे ऊपर चौक तक गीता दीदी के साथ छोड़ आए। इससे आगे का रास्ता मुझे गीता दीदी के साथ ऑटो रिक्शा से तय करना था। पथरीले रास्ते पर खट–खट की आवाज़ करता रिक्शा जब कुछ समय के लिए थमा तो गीता दीदी मुझसे पूछी, “दादा आपके घर पर कितने लोग हैं? माँ–बाप जिन्दा हैं या मर गए?” पहली ही मुलाकात में इस तरह का सवाल मेरे लिए थोड़ा अजीब था।
रिक्शे से उतरते ही मैंने फ़टाक से सौ–सौ के दो नीले नोट ड्राइवर को थमा दिए। क्योंकि मै नहीं चाहता था कि दीदी गाड़ी का भाड़ा दें। परन्तु इसलिए क्योंकि मै स्वयं को ‘सो –कॉल्ड सुपीरीयर’ समझता था। दीदी मुझे तुरबुन्गा गांव में बहादुर दादा के घर छोड़ने के लिए मेरे साथ आईं। बहादुर दादा के घर में 13 सदस्य थे। वह, उनकी धर्मपत्नी, चार बेटे, दो बहुएँ, एक बेटी, और 4 चार पोते पोतियाँ। कुछ ही समय में मैं उनके सबसे बड़े बेटे भूपेश्वर के साथ घुल–मिल गया था। बहादुर दादा अधेड़ उम्र के थे और बातचीत कम ही किया करते थे। परंतु अपने सबसे छोटे बेटे राम को उसकी गैर–ज़िम्मेदारी का ताना कसने में उनके पास असंख्य शब्द थे। वे कहा करते, “जब तक बाप है, तब तक मौज कर ले।” लेकिन यह कहते हुए उनके चेहरे पर जो मुस्कान खिल जाती थी, वह यह साफ़ ज़ाहिर करती थी कि उन्हें राम का सनाथ और गैर-ज़िम्मेदार होना कुल मिलाकर अच्छा लगता है।
उनकी पत्नी को मैं शांति दीदी कहकर बुलाता था। वे मुझे ‘पंडित’ पुकारा करती थीं। पहले ही दिन मेरा पूरा नाम मालूम पड़ने पर वे कहने लगी कि “हम तुम्हारे पैर छुआ करेंगे, तुम तो पंडित हो।” इस पर हंसी–मज़ाक में हमारी बहुत बहस हुआ करती थी। वे बार–बार मुझे रामायण और महाभारत के कुछ अंश सुनाने को कहती रहती थीं। नवंबर की जमा देने वाली ठंड में हम सभी रात में साथ बैठकर आग तापा करते, और मूंगफली खाते-खाते एक–दूसरे को अपने–अपने किस्से सुनाते थे। उनका बड़ा बेटा भूपेश्वर मुझसे कहा करता कि “इतनी छोटी उम्र में 24 हज़ार रुपए माहवार (प्रति महीना) पा जाना कोई मामूली बात नहीं है दादा और वैसे भी, आपको तो गांव घूमने के पैसे मिलते हैं।” इस पर सभी ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाया करते। ‘सैलरी’ की बात सुनते ही मुझे मेरे कॉलेज के दिन याद आने लगते। उन दिनों मैं सोचता था कि अपनी पहली सैलरी से मैं ‘हैरी–पॉटर’ वाली टी-शर्ट खरीदूंगा।
एक रोज शांति दीदी ने अपने महिला मंडल में यह बतला दिया कि उनके घर प्रदान से एक मेहमान रुका है और वो पंडित है। फिर क्या था! सभी दीदी लोग मुझे अपने घर चाय–नाश्ते के लिए बुलाने लगे। परंतु उनका यह भ्रम उस दिन टूटा जब उन्होंने एक शाम मुझे साइकिल पर दो मुर्गियाँ लाते हुए देखा।
"इतनी छोटी उम्र में 24 हज़ार रुपए माहवार पा जाना कोई मामूली बात नहीं है दादा और वैसे भी, आपको तो गांव घूमने के पैसे मिलते हैं।” ‘सैलरी’ की बात सुनते ही मुझे मेरे कॉलेज के दिन याद आने लगते। उन दिनों मैं सोचता था कि अपनी पहली सैलरी से मैं ‘हैरी–पॉटर’ वाली टी-शर्ट खरीदूंगा।
रोज़ सुबह बहादुर दादा अपनी छोटी बेटी तुलसी को तीस रुपए देकर पास की दुकान पर भेजा करते थे। तुलसी अपने दोनों हाथों की कलाई में दबोचकर एक थैली में गुलाबी रंग की मसूर की दाल लाया करती थी। मानो मुझसे छुपाने का प्रयास कर रही हो। शुरुआत के कुछ दिनों तक हम सभी मसूर की दाल और चावल खाया करते थे। एक रोज़ मेरी थाली में रखा हुआ भात काला था। मेरे चेहरे के भाव परखते हुए बहादुर दादा मुझसे बोले, “शुभांकन वो पुराना चावल ख़त्म हो गया है। जब आप आने वाले थे, तब हमने वह चावल खरीदा था।” उनसे और बातचीत करने पर मुझे पता चला कि बीते साल उनकी धान की खेती टिड्डों की वजह से खराब हो गई जिस कारण चावल काला हो गया और खाने में कड़वा लगता है। वह बहुत दुख के साथ मुझसे बोले कि “ये तीता (कड़वा) भात है दादा, पता नहीं आप खा सकेंगे कि नहीं।” मानों कुछ देर के लिए मेरा पूरा शरीर वाष्प छोड़ने लगा हो। भाव–विभोर होकर मैं यह सोचने लगा कि बीते दिनों से जो ज़िन्दगी मैं इस घर के भीतर जी रहा था, वह यहाँ पर एक प्रकार की समृधि है और उस समृधि को यह परिवार सिर्फ़ मेरे लिए जुटाने का प्रयास कर रहा था।
जैसे–जैसे दिन बीतने लगे, हम सभी 27 तारीख का इंतज़ार करने लगे। उस परिवार को और मुख्य रूप से बहादुर दादा को इंतजार था घर में जन्मे हुए नवजात के छह महीने पूरे होने का ताकि वह उसकी मुँह–जुट्ठी का कार्यक्रम और सत्यनारायण का पाठ करवा सकें। मुझे भी उसी तारीख का इंतज़ार था क्योंकि मेरे फ्लिपकार्ट अकाउंट में रखी हुई हैरी –पॉटर टीशर्ट ख़रीदे जाने की प्रतीक्षा कर रही थी। सोचा अपने पहले पैसों से पहली चीज़ खरीदने का मज़ा ही कुछ और होगा। बहादुर दादा पैसे जमा करने लगे। आखिर लसिया बाज़ार से एक ब्राह्मण पाठ करने जो आने वाले थे। वे दक्षिणा में 1000 रुपए लिया करते थे। बहादुर दादा उनका बहुत सम्मान किया करते थे और अक्सर मुझे उनकी कहानियाँ भी सुनाया करते थे।
25 तारीख की शाम बहादुर दादा मेरे साथ बैठकर ज़रूरी सामान की लिस्ट बना रहे थे ताकि मुख्य कार्यक्रम से एक दिन पहले खरीदारी की जा सके। लिस्ट बनाने के बाद हम दोनों सांझ में बाड़ी की ओर निकल पड़े जहाँ शांति दीदी हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। हमारे पीछे से आते हुए नशे की हालत में दो युवकों ने बाइक बहादुर दादा के ऊपर चढ़ा दी। दादा गिर पड़े और उनके हाथ, पैर, मुँह, शरीर के हर भाग से खून बहने लगा। कुछ ही समय में वहाँ भीड़ जमा हो गई। शांति दीदी रोने लगीं। हमने तुरंत ही एम्बुलेंस की व्यवस्था की। मैं, भूपेश्वर दादा और शांति दीदी बहादुर दादा को लेकर 25 किलोमीटर दूर रेफरल हॉस्पिटल के लिए रवाना हो गए। शांति दीदी के आंसू नहीं थम रहे थे। वो मेरी तरफ एक टक देखी और करहाती हुई आवाज़ में कहने लगी, “तुम पंडित हो, प्रार्थना करो तुम्हारे दादा ठीक हो जाएं” और बस यही दोहराती रहीं।
अस्पताल पहुँचते ही डॉक्टर मैडम ने बहादुर दादा का निरीक्षण किया, कुछ टेस्ट किये, पट्टी बांधी और दवाई दी। उनके बगल में बैठी शांति दीदी अभी भी चिंता में थी। मैं उनकी तरफ़ मुस्कुराते हुए देखा और बोला, “अरे दीदी! अब तो ठीक हो गए दादा। बस डेढ़ महीना प्लास्टर रहेगा दोनों पैरों में।” यह सुनकर शांति दीदी भी छटाक भर मुस्कुरा दी। तभी मुझे मेरे अकाउंट में 24000 रु क्रेडिट होने का मैसेज आया। मैंने काउंटर पर जाकर खर्च की पेमेंट की। उस समय फ्लिपकार्ट पर पड़ी उस टीशर्ट का मेरे लिए कोई मोल नहीं था।
चूँकि मेरा पी.जी. अस्पताल के नज़दीक ही था, तो मैं सभी के लिए खाना लेने घर आ गया। मैंने जल्दी से बारह रोटियां, थोड़ी सब्ज़ी और थरमस में चाय पैक कर ली। 6 अंडे भी उबालने के लिए केतली में रख दिए। फिर ध्यान आया कि बहादुर दादा तो अभी कुछ नहीं खा पाएंगे, तो उनके लिए मैं क्या ले जाऊं? मैंने भूपेश्वर को फ़ोन लगाया और उनको डॉक्टर मैडम से पूछने को कहा कि दादा अभी क्या खा सकते हैं। भूपेश्वर दादा थोड़ा रुके और फिर बोले, “मेरे पिताजी नहीं रह सकें शुभांकन।”
मृत्यु शांत है। शाश्वत है। अंधाधुंध दौड़ के बाद का ठहराव है। एक व्यक्ति, जिसके साथ मैं एक रोज़ पूजा के सामान की खरीददारी के लिए लिस्ट तैयार कर रहा था, उसी के ठीक अगले दिन मैं उस व्यक्ति की चिता को लकड़ी दे रहा था। उस एक दिन का क्या मोल है? वह एक दिन जीवन को दो भागों में विभाजित करता है। पहला भाग, जिसमें यह प्रतीत होता है कि जीवन में हर अच्छी चीज़ का आगमन समीप है और दूसरा भाग, जो यह आभास कराता है कि हर अच्छी चीज क्षितिज की ओर हमसे दूर जा रही है।
मृत्यु शांत है। शाश्वत है। अंधाधुंध दौड़ के बाद का ठहराव है। एक व्यक्ति, जिसके साथ मैं एक रोज़ पूजा के सामान की खरीददारी के लिए लिस्ट तैयार कर रहा था, उसी के ठीक अगले दिन मैं उस व्यक्ति की चिता को लकड़ी दे रहा था। उस एक दिन का क्या मोल है? वह एक दिन जीवन को दो भागों में विभाजित करता है। पहला भाग, जिसमें यह प्रतीत होता है कि जीवन में हर अच्छी चीज़ का आगमन समीप है और दूसरा भाग, जो यह आभास कराता है कि हर अच्छी चीज क्षितिज की ओर हमसे दूर जा रही है।
27 तारीख बीत गई। मानो घर की हवा दूषित हो गई हो। सारी हरियाली उधेड़ दी गई हो। शांति दीदी एक शब्द भी नहीं बोलती और बस पत्तों की कटोरियाँ बनाती रहती। घर पर जन्मे नवजात के भी 6 माह पूरे हो गए परंतु किसी का उस पर ज़रा भी ध्यान नहीं था। सभी विषाद में थे और यह विषाद यूँ ही पलायन नहीं करता। भूपेश्वर ने तभी छोटे बच्चे की मुँह–जूठी और घर पर सत्यनारायण पूजा का सुझाव रखा परंतु घर पर किसी को देने के लिए फूटी कौड़ी नहीं थी तो 1000 रु दक्षिणा तो सोच से परे था। तब शांति दीदी डेढ़ दिन बाद पहली बार बोली, “तुम भी तो पंडित हो, तुम पूजा करोगे क्या हमारे यहाँ!”
अंत में वह सत्यनारायण की पूजा घर पर मैंने करी और दक्षिणा स्वरुप 1 रुपया लिया। वह मेरी पहली सैलरी थी।
Shubhankan Pandey, an Agriculture Engineer from GB Pant University of Agriculture and Technology, started his career as a Development Apprentice in PRADAN in October 2020. He is currently based in Palkot team in the Chhota Nagpur region of Jharkhand. He is mainly engaged in education, agriculture and allied livelihood activities with the community and women collectives. He's deeply interested in a wide range of literature and in writing.