नया सांचा, पुराना ढ़ांचा?

Pallavi Priya, Bhavna Bisht . December 3, 2021

प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन (प्रदान) बड़े पैमाने पर गाँव की आजीविका संवर्धन के लिये देश के 7 राज्यों में कार्यरत है। हम जानते हैं कि हमारे द्वारा किये जा रहे लगातार प्रयासों की वजह से आज देश के सभी छोटे-बड़े किसान काफ़ी तेज़ी से जैविक खेती से रूबरू हो रहे हैं। वे स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री से तैयार किए गए जैविक उर्वरकों, कवकनाशकों/फफूंदनाशकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पसंद करते हैं। सरकारी कृषि विभागों या गैर-लाभकारी संस्थाओं के कृषि विस्तार कर्मी (extension workers), लगातार गाँव का दौरा कर गांव वालों को जैविक खेती के इस्तेमाल पर प्रशिक्षित कर उन्हें इसके उपयोग को लेकर प्रोत्साहित करते हैं।

हालाँकि, आज से 20-30 साल पहले यह स्थिति नहीं थी। उस समय यही कृषि विस्तार कर्मी (extension workers) हर गांव में जाकर, लोगों खेती के लिए रसायनों का उपयोग करवा कर ऐसी कृषि पद्धति अपनाने के लिए प्रेरित करते थे जिनसे उनकी फसलों की उपज बढ़े। उस वक़्त खेतों की उपज बढ़ाना मुख्य उद्देश्य था। अतः पारम्परिक तरीकों को पिछड़ा हुआ माना जाता था। हरित क्रांति (Green Revolution) के काल ने यही तो सिखाया था, कि स्थानीय रूप से उपलब्ध खेती के तौर-तरीके कतई वैज्ञानिक नहीं है। इसीलिए अच्छी पैदावार के लिए वैज्ञानिक खेती के तरफ़ रुख करना ज़रूरी था। इसलिए वैज्ञानिक खेती पर कृषि-प्रशिक्षकों का ख़ासा ज़ोर रहा।

हम देख रहे हैं कि आज के समय में किसानों को बताए जा रही कृषि संबंधी चीज़ें (खाद, कीटनाशक इत्यादि) और कृषि के तरीके कुछ दशकों पहले बताए जा रहे तरीकों से काफ़ी अलग हैं। आज सुझाए जा रहे तरीके और चीज़ें रसायनिक नहीं बल्कि जैविक हैं। हालांकि, आज भी उनकी सोच वही है जो कुछ दशकों पहले थी। किसानों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे खेती के लिए अपने पारंपरिक ज्ञान और कौशल का इस्तेमाल करने के बजाय बाहरी लोगों (बाहरी सरकारी और गैर-सरकारी संस्था के लोगों) द्वारा बताए जा रहे तरीकों का इस्तेमाल करें। यह भारत के जैविक कृषि क्षेत्र में एक बढ़ती हुई समस्या है|

अनुवाद: पल्लवी प्रिया, भावना बिष्ट

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