भारत में आदिवासी समुदाय की भलाई सुनिश्चित करने हेतु सतत प्रयास किये जाने के बावजूद, यह समुदाय सबसे वंचितों में से एक रहा है। चौधरी एवं घोष ने इस लेख में झारखंड तथा ओडिशा में रहने वाले आदिवासी समाज की आजीविका की स्थिति के सर्वेक्षण के एक अध्ययन के निष्कर्षों पर चर्चा की है। वे व्यक्तिगत साक्षात्कारों, फोकस समूह चर्चाओं और पारिवारिक सर्वेक्षणों का उपयोग कर यह पाते हैं कि देश के अन्य समुदायों की तुलना में, आदिवासी न केवल पारिवारिक आय में, बल्कि पोषण संबंधी परिणामों, सड़कों और सार्वजनिक परिवहन तक पहुँच तथा साक्षरता और भूमि के स्वामित्व के मामले में भी पीछे हैं।
मध्य भारतीय क्षेत्र में ‘अनुसूचित जनजाति’ या ‘आदिवासी’ की प्रशासनिक श्रेणी में आनेवाले लोग देश के सबसे हाशिए पर रहने वाले समुदायों में से एक हैं (प्रसाद 2016)। आज़ादी के बाद से, सरकारी और गैर-सरकारी एजेंसियां आदिवासियों की भलाई सुनिश्चित करने की दिशा में कार्य कर रही हैं। इसके बावजूद, उन्हें विकास प्राप्त करने में चूक रहे हैं। लगातार बेदखली और विस्थापन सहित इसके कई कारण हैं (फर्नांडीस और ठकुराल 1989)। साथ ही, ऐसा लगता है कि इन आदिवासियों की विशिष्ट आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं या उनके निवास के पारिस्थितिक क्षेत्रों पर विचार किए बिना विकास संबंधी प्रमुख नीतियां और कार्यक्रम को लागू किया गया है और ये उनके ऊपर थोपे गए हैं।
प्रदान (प्रोफेशनल असिस्टन्स फॉर डेवलपमेंट ऐक्शन; अर्थात विकास कार्य के लिए व्यावसायिक सहायता), जो एक अखिल भारतीय गैर-लाभकारी कार्यक्रम है, के द्वारा दो आदिवासी बहुल राज्यों – झारखंड और ओडिशा के आदिवासी समुदायों के आजीविका की स्थिति को समझने के लिए एक अध्ययन किया गया।
Dibyendu Chaudhuri & Parijat Ghosh