" मुस्कान "
— क़ायनात अहमद, देवसर

“मुस्कान”
कोई देदे तो जीवन का मोल
और न मिले, तो जीवन तो अनमोल है ही !!!


अपनी case study वाली दीदी के लिए
दिमाग में सोचे सवालों की श्रृंखला में से मैंने एक को चुना
"किस चीज़ से ख़ुशी मिलती है दीदी आपको?"
मैंने अपने पैर अपने दिल के समीप समेटते हुए पूछा
उनकी वो चमकदार आँखें
रात में जलते लकड़ी के चूल्हे से और भी अग्नि समान चमक रहीं थी
वो मुस्करायीं और आग को हवा देते हुए बोलीं


"अब क्या बताएं दीदी,
कभी सोचा नहीं क्या खुशी देता है "

इतना बोलकर उन्होंने चुप्पी साध ली
उनकी आंखों की चमक सोच में लीन होती दिखी
मैं बिन कुछ बोले आँख टिकाये उन्हें देखती रही,
और वह चूल्हे को
दाल का चम्मच चलाते हुए तक़रीबन पांच मिनट के मौन के बाद उनके मुख से कुछ शब्द गिरे
"यही कि भैय्या जी जब ज़्यादा वक़्त न मारें, तो शरीर खुश
हम पेट भर खाना खाएं, तो पेट खुश
और हमार बच्चे खुश, तो मन तो खुश होगा ही
हैना दीदी ?"

हमारी इतनी देर की बातचीत में, उन्होंने यह पहली बार मेरी तरफ़ देखकर बात की थी
मैं कुछ कह न पायी,
बस मुस्कुराकर सर हाँ में हिला दिया


उस अंधेरे कमरे में,
जहाँ ठंड शायद शरीर को परेशान कर रही थी
एकलौती उस जलती आग और मेरे भीतर चल रहे कोहराम ने
गर्मी उत्पन्न कर दी थी
BALANCE,
यही कहते हैं शायद उसे अंग्रेज़ी ज़बान में,
जिसमें मैं काफ़ी निपुण थी
मग़र उस वक़्त वह शब्द,
निरर्थक सा प्रतीत हो रहा था
ग्रेजुएशन के वक़्त मिली डिग्री के काग़ज़,
मुझे कोरे दिख रहे थे
सिर्फ़ मेरे हस्ताक्षर की स्याही नीली,
और बाक़ी सब ओझल


“दीदी !! दीदी !!”
मेरी दाईं कलाई पकड़कर एक हाथ ने मुझे हिलाया
अपने विचारों और सोच की दुनिया से
मानो वापस उस कमरे में मुझे फेंक दिया गया हो


उन्होंने खाने की थाली में चूल्हे से उतारी गरम मक्के की रोटी रखते हुए पूछा,
"आज सब्ज़ी नहीं मिली दीदी, मक्ख़न से खा लोगी क्या?"
मैंने थाली अपनी ओर लेते हुए कहा
"हाँ दीदी कोई दिक़्क़त नहीं है"
एक कोने में हरी मिर्च और धनिये की चटनी
पास में कुछ जमे दही जैसा रखा था
मैंने एक कौर बनाके मुँह में रख तो लिया ,
पर उसे निगल ना पाई


बचपन से ही मैं अपनी भावनाओं को छुपाने में निपुण थी,
कोई कदापि नहीं समझ सकता मेरे हंसते चेहरे के पीछे क्या चल रहा है
उस समय भी मैंने इस कला में अपनी प्रतिभा दिखाई
उनके "कैसा है दीदी?" सवाल का जवाब,
मैंने मुस्कुराकर, “बहुत अच्छा है", कहकर दे दिया
उस खट्टे दही को मैंने खाने का निरादर ना करने की समझ से
मुँह से बाहर ना निकाला
मगर मात्र एक निवाले ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया
कि कैसे एक ही सफ़ेद पदार्थ के इतने विभिन्न अर्थ थे हम दोनों के लिए
एक के लिए वो मक्ख़न था, जो कि कभी-कभी ही खाने को मिलता है
और दूसरे के लिए वो खट्टा दही, जो शायद कभी खाने लायक नहीं होता


मैं अपनी इसी सोच में फंसती ही जा रही थी
कि इतनी देर में अनु आ गयी, दीदी की छोटी बेटी
"हमको दही मक्खन ना दिए, दीदी को खिला रहीं"
मेरी थाली को देखते हुए, वो अपनी माँ से शिक़ायत करने लगी
यह देख दीदी से हंसते ना रहा गया
वो ख़ूब ज़ोर से ठट्टे मारते हुए उसे अपनी गोद में ले बैठीं


“अरि तोको भी देंगे न दही माखन"
दीदी ने एक और थाली खींचते हुए उसमें ढेर सारा दही भर दिया और ऊपर से शक्कर डाल दी
बिल्कुल वैसे जैसे अनु को पसंद थी


अनु दोनों हाथ आगे बढ़ाये जल्दी से उस थाली को पकड़ना चाहती थी,
और दीदी के थाली आगे बढ़ाते ही
उसने झटपट थाली पकड़ली और हाथ से खाना खाने लगी


वह गोदी से उठी
थाली से दही की कटोरी बाएं हाथ में ली
और सर हिलाते, मुस्कुराते हुए नाचने लगी
बस माखन खाये जाती
गुनगुनाये जाती
"दीदी और अनु ने माखन खाया, दीदी और अनु ने माखन खाया"


चूल्हा भूल, रोटी भूल, सर पर हाथ टिकाये दीदी उसे देखती रहीं,
और बस मुस्कुराती रहीं
वह मुस्कान उनके होठों से होती हुई उनकी आँखों तक पहुँच चुकी थी
उनका धूप से सांवला पड़ा चहरा भी उस वक़्त ग़ुलाबी दिख रहा था
“और हमार बच्चे ख़ुश, तो मन तो ख़ुश होगा ही, हैना दीदी?”
शायद इसी मन की ख़ुशी की बात कर रहीं थीं दीदी
और मेरे लिए उनकी वह मुस्कान, जो जीवन को मोल देदे
शायद वो भी यही थी


भिन्न होने के बावजूद भी,
हम दोनों एक समान अर्थ पे उतर आये थे
मेरा उठाया गया वह सवाल,
जिसका जवाब दीदी शब्दों में नहीं दे पा रही थीं,
उनकी ख़ामोशी से बोलते हुए चहरे ने दे दिया था
मैं भी शायद उनके इस जवाब को अपनी village study की presentation में ना उतार पाऊँ
मग़र मेरी ज़िन्दगी में ‘मुस्कान’ शब्द का सही अर्थ उतर चुका था
और शायद वो उसे अनमोल बनाने लायक काफ़ी था!!!